0 जमीन बेचकर चुकाया आधा कर्ज,आधा अब भी बाकी
0 पाली उप वन मण्डल अधिकारी, रेंजर,डिप्टी रेंजर की उदासीनता ने डुबाया
कोरबा-पाली। कोरबा जिले के वन मण्डल कटघोरा अंतर्गत उप वन मण्डल पाली में “ESIP अंतर्गत आयमूलक कार्य मुर्गीपालन” योजना में समूह को आय तो नहीं हुई, उल्टे वह 8 से 9 लाख के कर्ज में डूब गया। मुर्गा-मुर्गी पालन के फंडे में उप वन मण्डल अधिकारी और रेंजर सहित अधीनस्थ कर्मी लाल हो गए और कर्जदार समूह को निजी जमीन बेचकर कर्ज चुकाना पड़ा है, अभी भी कर्ज चुकाना बाकी है।
मामला पाली रेंज के ग्राम कन्हैया पारा का है। आयमूलक योजना के तहत प्रस्तुत अनुशंसा के आधार पर प्रावधानों एवं निर्धारित मापदण्ड के अनुसार कार्य सम्पादित किये जाने हेतु राशि की तकनीकी स्वीकृति प्रदान की गई थी। मुख्य वन संरक्षक बिलासपुर,राजेश कुमार चन्देले के द्वारा 28 जून 2023 को इस आशय का आदेश जारी कर सम्बन्धित कार्य कराए जाने के भी निर्देश दिए गए। ESIP अंतर्गत आयमूलक कार्य मुर्गीपालन के तहत जय बुढ़ादेव महिला स्व सहायता समूह कन्हैयापारा को मुर्गी पालन (सोनाली) हेतु 18 लाख 71 हजार 500 रुपये, मुर्गी पालन (बायलर) के लिए 14 लाख 11 हजार रुपये और मुर्गी पालन (कड़कनाथ) के लिए 20 लाख 500 रुपये की स्वीकृति दी गई थी। इसी प्रकार पाली वन रेंज में ही बूढ़ादेव महिला स्व सहायता समूह कोडार को भी यही स्वीकृति दी गई।
0 50 से 60 लाख ही खर्च,बाकी का घपला…!
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सत्य संवाद ने जब इस योजना की तस्दीक मौके पर जाकर की तो कन्हैया पारा में जय बूढ़ादेव समूह के पोल्ट्री फार्म का संचालन में सहयोग करने वाले ने बताया कि यहां तीन अलग-अलग शेड बनाए गए हैं और तीनों शेड को मिलाकर अनुमानित लागत 15 से 18 लाख रुपए से अधिक की नहीं है। मुर्गी पालन के लिए प्रत्येक शेड में 1500 कड़कनाथ, 1500 सोनाली और 1500 बॉयलर प्रजाति का मुर्गा-मुर्गी का चूजा दिया गया था जिसकी लागत लगभग ₹200000 आई। एक माह के लिए 180 बोरी दाना दिया गया था जिसकी लागत 3.78 लाख आई थी। इस तरह मुर्गा-मुर्गी पालन के लिए लगने वाले बर्तन, टब आदि सामानों को भी वन विभाग द्वारा प्रदाय किया गया। पानी की व्यवस्था के लिए यहां पूर्व से अन्य निजी पोल्ट्री फार्म के संचालक द्वारा खुदवाए गए बोर से ही व्यवस्था कर दी गई यानी बोर का खर्च बच गया।
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एक बार राशि लगा देने के बाद दूसरी बार किसी भी तरह की राशि इस योजना के लिए वन विभाग की ओर से खर्च नहीं की गई। अब मोटा-मोटी तौर पर खर्च का अंदाजा लगाया जाए तो अधिक से अधिक 30-35 लाख रुपए खर्च हुए हैं इसी तरह से व्यवस्था कोडार में भी की गई है। कुल योजना 1 करोड़ 5 लाख रुपए में से अधिकतम दोनों समूह को मिलाकर 60 से 70 लाख रुपए बमुश्किल खर्च हो पाए हैं और 30 से 40 लाख के आसपास की रकम खर्च कागजों में दर्शा दी गई है।
0 कड़कनाथ और सोनाली का खर्च ब्रायलर ने उठाया
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कन्हैया पारा के समूह ने बताया कि योजना प्रारंभ करने के बाद से कोई भी वन अधिकारी या कर्मी झांकने के लिए नहीं आए। रेंजर के द्वारा फोन पर भले ही बात कर जानकारी ले ली जाती थी। कड़कनाथ और सोनाली का कोई भी मार्केट नहीं हुआ और काफी कुछ नुकसान हो गया। ब्रायलर को बेच बेचकर कुछ आमदनी इकट्ठा की गई जिससे सोनाली और कड़कनाथ के लिए दाना की खरीदी 6 माह तक करते रहे। सोनाली और कड़कनाथ का कोई बाजार नहीं मिला और उसे बेच भी नहीं पाए। बताया गया कि 8 से 9 लाख के कर्ज में समूह डूब गया। कर्ज चुकाने के लिए समूह को सहयोग कर रहे पोल्ट्री फार्म व्यवसायी अर्जुन जिसे कि वन विभाग के अधिकारियों ने संचालन अनुभव होने के कारण समूह को मुर्गी पालन में सहयोग के लिए कहा था, उसके परिवार के जो सदस्य समूह से जुड़े हुए हैं उसने अपनी डेढ़ एकड़ जमीन चार लाख रुपए में बेचकर कर कर्ज चुकाया। दाना बेचने वाले लाफा निवासी संदीप नायक को अभी भी 4 लाख 40 हजार का कर्ज देना शेष है। कड़कनाथ और सोनाली का दाना खर्च की पूर्ति ब्रायलर मुर्गा-मुर्गी को बेच-बेचकर की जाती रही। इस तरह वन विभाग की महत्वपूर्ण योजना में आय तो समूह को हासिल नहीं हो सकी लेकिन वह कर्ज में जरूर डूब गई। अब इसमें कहीं ना कहीं वन विभाग के अधिकारियों की पूर्ण उदासीनता, प्रोत्साहन व मॉनीटरिंग में कमी, बाजार उपलब्ध कराने में सहयोग नहीं करना प्रमुख रूप से जिम्मेदार कहा जा सकता है।
0 अधिकारी भी नहीं बिकवा पाए कड़कनाथ-सोनाली
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समूह के सहयोगी ने बताया कि हालांकि रेंजर के द्वारा बीच में कोरबा और बिलासपुर तक समूह के सदस्य को ले जाकर कड़कनाथ और सोनाली की बिक्री के लिए प्रयास किया गया लेकिन यह नाकाफी साबित हुआ। समूह ने बताया कि बाजार में सोनाली और कड़कनाथ की कोई खरीदी ज्यादा नहीं होती, यह बात शुरू में वन विभाग के अधिकारियों को बताई गई थी लेकिन उन्होंने योजना में होने के कारण इसे लेने की मजबूरी बताई। इसी तरह कोडार का समूह भी घाटा और नुकसान के बराबरी पर चल रहा है। यहां सरपंच के परिजन सहित अन्य लोग समूह से जुड़े हुए हैं। इन्होंने भी बताया कि सोनाली और कड़कनाथ का कोई बाजार नहीं है, कम कीमत में बेच-बेचकर इन्हें खपत किया गया है। बरसात के पूरे मौसम में मुर्गी पालन केंद्र तक पहुंचना संभव नहीं रहता क्योंकि सड़क नहीं है। समूह को कुछ फायदा नहीं हुआ तो नुकसान भी नहीं उठाना पड़ा है। आगे और भी कहानी बाकी है…..