जनचर्चा: जो बोया वही काटा, जनादेश तो स्वीकारना होगा
कोरबा। “जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है,वह कभी न कभी खुद ही अपने खोदे हुए गड्ढे में जा गिरता है।” कुछ ऐसी ही जनचर्चाओं के साथ ‘नगर’ से लेकर ‘निगम’ तक राजनीतिक-प्रशासनिक वे लोग फीलगुड महसूस कर रहे हैं जो बदलाव के पक्षधर हैं। नगर निगम में सभापति (नगर निगम अध्यक्ष) के चुनाव को लेकर जो कुछ भी अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम पार्टी में घटित हुआ, वह धीरे-धीरे राख के ढेर में सुलगती हुई चिंगारी की तरह ही था। जिस तरह से पार्टी के घोषित प्रत्याशी का बहुसंख्य पार्षदों ने विरोध किया, उस हालात में अगर नूतन सिंह ठाकुर ने समय रहते नामांकन फॉर्म नहीं भरा होता और भाग नहीं लिए होते तो भाजपा के हाथ से सभापति की कुर्सी जाना तय था। नूतन के अलावा एक और भाजपा पार्षद किस्मत आजमाने की तैयारी में था लेकिन वक्त हाथ से निकल गया, वरना पार्टी से ही 3 दावेदार हो जाते।
पार्टी सूत्रों की मानें तो पूर्व नेता प्रतिपक्ष को लेकर नाराजगी का सिलसिला अधिकृत नाम की घोषणा के पहले उस दिन से ही चली आ रही थी, जब से उन्होंने सभापति की दावेदारी शुरू की थी। वे खुद को जुझारू, संघर्षशील अच्छा नेता प्रतिपक्ष होना प्रसारित-प्रचारित कराते रहे लेकिन पार्टी के निर्वाचित पार्षदों के बीच वे वह जनाधार नहीं बना पाए जो जिला से लेकर प्रदेश संगठन स्तर तक बताते फिरते रहे। उनके नाम को लेकर अंदर-अंदर विरोध चल रहा था लेकिन संगठन खेमा इसे भांप नहीं पाया, तब भी जबकि खुला विरोध पर्यवेक्षक पुरन्दर मिश्रा, जिलाध्यक्ष मनोज शर्मा व जिले के वरिष्ठ नेताओं के समक्ष हुआ। यदि भांप जाते तो संभवत: उनके नाम का लिफाफा रायपुर से नहीं आता, समय रहते एक रात पहले संगठन को आगाह कर देते और इस तरह की फजीहत नहीं करानी पड़ती।
0 फायदा तो भाजपा का ही हुआ
पार्टी के लिए तो यह अप्रत्याशित है ही लेकिन इससे ज्यादा अप्रत्याशित उनके लिए रहा जो शुरू से हितानंद अग्रवाल के लिए ऊर्जाधानी से लेकर राजधानी तक लॉबिंग कर रहे थे व जीत के प्रति पूर्ण रूप से आश्वस्त थे। यदि पार्टी से सिर्फ और सिर्फ हितानंद ही मैदान में रहते तो निश्चित था कि क्रॉस वोटिंग में सभापति की कुर्सी निर्दलीय अथवा कांग्रेस प्रत्याशी के फेवर में चली जाती। अब इस बात की चर्चा शहर से लेकर साकेत के गलियारे में है कि ऐन वक्त पर नाराजगी ही सही, पार्टी लाइन से हटकर ही सही, लेकिन एक पार्षद होने और पार्षदों के बीच से ही चुने जाने की नीति के तहत नूतन सिंह ठाकुर ने जो फाइट किया और तुरंत निर्णय लिया, उसका सुखद परिणाम निकला कि सभापति की कुर्सी भाजपा के ही खाते में गई।
0 कितनों पर गिरेगी कार्रवाई की गाज.…..?
परिणाम के बीच अनुशासनात्मक कार्रवाई से पहले पार्टी स्तरीय जांच पड़ताल का ऐलान कर दिया गया है। जांच में जो पाया जाएगा उसकी रिपोर्ट अनुसार कार्रवाई की जा सकती है लेकिन इस जांच से पहले जो पार्षदों का जनादेश है, उसे तो पार्टी को स्वीकार करना ही पड़ेगा। चूंकि सभापति का चुनाव दलीय आधार पर नहीं बल्कि पार्षदों के बीच से मत आधार पर होता आया है, यह तो एक व्यवस्था है कि राजनीतिक तौर पर समर्थित प्रत्याशी को आगे बढ़ाया जाता है लेकिन पार्षदों की पसंद को दरकिनार करना संभव नहीं है। अब रही बात जो बोया-सो पाया की, तो हाल ही में संपन्न हुए सभी चुनाव के दौरान अपने हिसाब से संगठन को चलाने और प्रत्याशियों की किस्मत का फैसला करने में पर्दे के पीछे से रहकर भूमिका निभाने की कोशिश इनके द्वारा की जाती रही। यह सर्वविदित है कि अति महत्वाकांक्षा भी अति आत्मविश्वास की तरह घातक होती है। कुछ यही घातक हालात उनके साथ निर्मित हुआ। कई वार्ड विशेष में पार्षद प्रत्याशी का चयन से लेकर उसके पक्ष में मतदान करना है या नहीं करना है, यह तक तय करने में अप्रत्यक्ष भूमिका निभाना उनके खुद के लिए घातक साबित हो गया। निकाय चुनाव में दूसरे के लिए गड्ढा खोदना, संगठन से ही जुड़े लोगों के बीच उनके लिए ही विपरीत हालात उत्पन्न करना, सभापति की दौड़ में लगे अन्य लोगों की टांग खींचने/खिंचवाने के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम में जो भूमिका निभाई गई थी, वह सभापति के चुनाव में बहुत बड़े राजनीतिक नुकसान के रूप में सामने आया है। भले ही ठीकरा संगठन से जुड़े लोगों पर फोड़ा जाएगा लेकिन यह कहीं ना कहीं अधिकृत प्रत्याशी के लिए व्यक्तिगत हार है जिसे समर्थक समझने में लगे हैं कि आखिर चूक कहां हुई….?