रायपुर। छत्तीसगढ़ के वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र से एक बड़ी खुशखबरी आई है। इंद्रावती टाइगर रिज़र्व में पहली बार स्मूथ-कोटेड ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata) की तस्वीरें ली गई हैं।
यह दुर्लभ प्रजाति की फोटोग्राफिक पुष्टि हाल ही में IUCN Otter Specialist Group Bulletin में प्रकाशित एक शोध पत्र में की गई है।
इस अध्ययन को नोवा नेचर वेलफेयर सोसाइटी से म. सुरज, मोइज़ अहमद, आलोक कुमार साहू, कृष्णेंदु बसाक और मयंक बागची ने इंद्रावती टाइगर रिज़र्व के डिप्टी डायरेक्टर श्री संदीप बल्गा के मार्गदर्शन एवं सहयोग से किया गया।
स्मूथ-कोटेड ऑटर (Smooth-Coated Otter) एशिया में मिलने वाली एक जल-स्तनधारी प्रजाति है, जो अपनी चमकदार, मुलायम फर और सामाजिक स्वभाव के लिए जानी जाती है। इसे हिंदी में अक्सर स्मूथ-कोटेड ऊदबिलाव कहा जाता है।
परिचय

वैज्ञानिक नाम: Lutrogale perspicillata
पहचान की खासियतें:
इनका फर बिलकुल चिकना और चमकदार होता है, इसलिए नाम “Smooth-Coated” पड़ा।
शरीर लंबा और लचीला, पैरों में झिल्ली (webbed feet) होती है, जिससे ये बहुत तेज तैरते हैं।
पूँछ चौड़ी और मजबूत होती है, जो पानी में दिशा बदलने में मदद करती है।
रंग हल्का भूरा से गहरा चॉकलेट ब्राउन तक होता है, पेट का हिस्सा हल्का।
आकार व वजन:
लंबाई: लगभग 1 मीटर से 1.3 मीटर (पूँछ समेत)
वजन: 7 से 12 किलो (कभी-कभी ज्यादा भी)
कहाँ मिलते हैं:
भारत, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के कई हिस्सों में।
भारत में मुख्यतः नदियों, दलदल, मैंग्रोव (सुंदरबन), गंगा-बरह नदी क्षेत्र, गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा, और तटीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
स्वभाव:
ये बहुत सामाजिक होते हैं और परिवार समूह में रहते हैं (एक ग्रुप में 5 से 15 सदस्य)।
एक दूसरे से आवाज़ों, हल्के चहचहाहट और बॉडी सिग्नल से बात करते हैं।
भोजन:
मुख्यतः मछलियाँ, मेंढक, केकड़े, झींगा और कभी-कभी छोटे जलीय जीव।
महत्व:
नदी-पर्यावरण के स्वास्थ्य के संकेतक के रूप में काम करते हैं।इनके होने का मतलब है नदी/तालाब साफ और सक्रिय है।
खतरे:
पानी का प्रदूषण
नदी किनारे मानव बस्तियों का बढ़ना
मछली पकड़ने के जाल में फँसना
संरक्षण:
इनकी सुरक्षा के लिए नदी-तटीय क्षेत्रों का बचाव
अवैध शिकार रोकना
“विलुप्त प्रजाति के ऊदबिलाव के मिलने के बाद विभाग की ओर से उसके संरक्षण एवं संवर्धन का प्रयास किया जाएगा।”
अरुण पाण्डेय
पीसीसीएफ , वाइल्डलाइफ
स्थानीय समुदायों को जागरूक करना जरूरी है।
“इंद्रावती नदी तंत्र में इस प्रजाति के मिलने से यह साबित होता है कि यदि हम आवास को सुरक्षित रखें तो प्रकृति स्वयं को पुनर्जीवित कर सकती है,”
— सुरज, प्रमुख शोधकर्ता।
स्थानीय लोगों द्वारा नीर बिल्ली (जल बिल्ली) के नाम से जानी जाने वाली यह ऊदबिलाव प्रजाति भारत में पाई जाने वाली तीनों प्रजातियों में सबसे बड़ी है।
टीम ने इन ऊदबिलावों को नदी में तैरते, मछली पकड़ते, एक-दूसरे की सफाई करते, रेत में लोटते और यहाँ तक कि एक मगरमच्छ को खदेड़ते हुए भी देखा — जो कि एक अत्यंत दुर्लभ व्यवहारिक अवलोकन है।
स्थानीय लोगों की जानकारी से मिली सफलता
शोध दल को यह जानकारी एक जंगली भैंस सर्वेक्षण के दौरान स्थानीय ग्रामीणों से मिली। ग्रामीणों ने बताया कि “नीर बिल्ली” अक्सर उनकी मछली पकड़ने की जाल को काट देते है। इसी आधार पर टीम ने इंद्रावती नदी के 15 किलोमीटर क्षेत्र में लगातार 3 महीने फील्ड सर्वे किए और कैमरे से ऊदबिलावों की स्पष्ट तस्वीरें लीं।
संरक्षण की चिंता
स्मूथ-कोटेड ऊदबिलाव को IUCN रेड लिस्ट में संकटग्रस्त (Vulnerable) श्रेणी में रखा गया है और भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची–I में सूचीबद्ध है।
“ऊदबिलाव नदियों की सेहत का सूचक प्राणी है। जहां यह जीवित है, वहां की नदी भी जीवित है,”
— मोइज़ अहमद, सह-शोधकर्ता।
अब छत्तीसगढ़ में तीनों भारतीय ऊदबिलाव प्रजातियाँ
इस खोज के साथ छत्तीसगढ़ उन गिने-चुने राज्यों में शामिल हो गया है जहां तीनों भारतीय ऊदबिलाव प्रजातियाँ —
स्मूथ-कोटेड, एशियाई स्मॉल-क्लॉड और यूरेशियन ऊदबिलाव — पाई जाती हैं। यह राज्य की नदी पारिस्थितिकी की समृद्धि को दर्शाता है।
संरक्षण की अपील
शोधकर्ताओं ने इंद्रावती और गोदावरी नदी तंत्रों में व्यापक सर्वेक्षण और समुदाय आधारित संरक्षण प्रयासों की आवश्यकता पर बल दिया है।
“यह खोज केवल एक प्रजाति की नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की नदियों की सेहत की कहानी है। इसे बचाने के लिए अब ठोस कदम जरूरी हैं,”
“श्री संदीप बल्गा आई. एफ. एस. डिप्टी डायरेक्टर, इंद्रावती टाईगर रिजर्व, बीजापुर.
संदर्भ:
मट, एस., अहमद, एम., साहू, ए.के., बसाक, के., बलगा, एस. और बागची, म. (2025).
इंद्रावती टाइगर रिज़र्व, छत्तीसगढ़ से 25 साल बाद स्मूथ-कोटेड ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata) की पहली फोटोग्राफिक पुष्टि।
IUCN Otter Specialist Group Bulletin, 42(4): 198–207.



